Words of wisdom | ज्ञान की बातें
परोक्षे कार्यहन्तारं
प्रत्यक्षे प्रियवादिनम
वर्जयेत् तादृशं मित्रं
विषकुम्भं पयोमुखम
चा०नी०२/५
पीठ पीछे बुराई करके काम बिगाड़ने वाले और सामने मधुर स्वर में बोलने वाले मित्र को अवश्य छोड़ देना चाहिये। ऐसा मित्र उस विषपूर्ण घड़े के समान है जिसके मुख के ऊपर थोड़ा सा दूध लगा हुआ दीखता हो।
न विश्वजेत कुमित्रे च
मित्रे चापि न विश्वसेत्
कदाचित कुपितं मित्रं
सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत्
चा०नी०२/६
कुमित्र पर तो कदापि विश्वास न करे और मित्र पर भी विश्वास न करे क्योंकि वह रुष्ट होने पर विश्वास करके सभी भेदों को खोल देता है।
बन्धु कौन है
उत्सवे व्यसने प्राप्ते
दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे
राजद्वारे श्मशाने च
यस्तिष्ठति स बान्धव:
चा०नी०१/१२
उत्सव, संकटकाल, अकाल, शत्रु आक्रमण, राजद्वार एवं श्मशान में जो साथ देता है, वही बन्धु है।
प्रस्तुति – पं हेमन्त त्रिगुणायत
ब्राह्मण सभा नगर अध्यक्ष, सोरों
अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित महासभा राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य